जैनेंद्र के कथा साहित्य का स्वरूप

जैनेंद्र के कथा साहित्य का स्वरूप

हिंदी कथा साहित्य, जिसकी परंपरा तो अत्यंत दीर्घ रही है लेकिन इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता है कि अपने शुरुआती दौर में ही नहीं बल्कि बीसवीं शताब्दी के आरंभ तक इसका स्वरूप मनोरंजनपरक एवं उपदेशात्मक रहा है। कथा साहित्य में यथार्थ भूमि और जन जीवन की समस्याओं का घोर अभाव था। हिंदी साहित्य में प्रेमचंद के पूर्व कहानी और उपन्यासों की एक लंबी परंपरा रही है। वहां शैली, पठनीयता आदि में कोई कमी नहीं थी। भाषा को सुदृढ़ करने में भी उनका अहम योगदान रहा है। पाठकों को बांधकर रखने की क्षमता तो जासूसी और तिलस्मी-ऐयारी उपन्यासों-कहानियों में अद्भुत रहा है। यदि कोई कमी रही है तो बस इतनी कि उसका जुड़ाव जनजीवन की समस्याओं से नहीं था। कथा साहित्य की इस कमी को भी प्रेमचंद ने पूरा कर दिया। प्रेमचंद की कहानियों-उपन्यासों में जनजीवन की समस्याएं आदर्शवादी यथार्थ और आगे चलकर अपने पूर्ण यथार्थ के साथ उपस्थित हैं। प्रेमचंद ने जब हिंदी कथा-साहित्य में जीवन की समस्याओं को कथानक के रूप में अपनाया तब उसके बाद अनेक रचनाकार इस मार्ग पर अग्रसर हुएं। प्रेमचंद और उनके परंपरा के कथाकारों ने जनजीवन के जिस समस्या को ग्रहण किया वह वास्तव में मनुष्य की बाहरी समस्याएं थी।  भौतिक-जीवन की समस्याएं थी। किंतु बारीकी से देखने पर यह तथ्य सामने आया कि मानव-जीवन में जितनी समस्याएं बाहरी जीवन में हैं उससे कम मनुष्य के आंतरिक जीवन में भी नहीं है। मनुष्य के आंतरिक जीवन में जो उलझनें हैं उन्हें सुलझाने के लिए मनोविश्लेषण के अलावा कोई और मार्ग नहीं था। हिंदी कथा साहित्य में मनोविश्लेषणवाद को प्रश्रय दिया 'जैनेंद्र' जैसे कथाकारों ने। जैनेंद्र, प्रेमचंद के समकालीन ही थे लेकिन उन्होंने हिंदी कथा-साहित्य में प्रेमचंद का अनुगमन न करके एक नई परंपरा की शुरुआत की। जिसमें पात्रों के मनोवैज्ञानिक धरातल को रखा गया। जैनेंद्र के उपन्यास एवं कहानियों में जिन पात्रों को लिया गया है उनके आंतरिक गूथियों को सुलझाते हुए मनोवैज्ञानिक धरातल पर उनकी समस्याओं को निरूपित किया गया है। जैनेंद्र के उपन्यासों - सुनीता,परख,त्यागपत्र, कल्याणी, सुखदा और कहानियों - पाजेब, एक दिन, नीलम देश की राजकन्या,अपना-अपना भाग्य, वातायन, पत्नी, जाह्नवी, मास्टर साहब इत्यादि में मनोविश्लेषण की बारीकियों को देखी जा सकती है | इसी तरह से अन्य कहानियों में भी इस तथ्य को देखा जा सकता है कि किस तरह से मानव-मन की ग्रंथियों को मनोवैज्ञानिक धरातल पर चित्रित करने का सफल प्रयत्न जैनेन्द्र के द्वारा किया गया है। एक उदाहरण के द्वारा यदि देखें तो त्यागपत्र में मृणाल के जीवन के इर्द-गिर्द घटनाएं फैली हुई है, पात्र फैले हुए हैं। लेकिन वहां वे सभी पात्र मृणाल के चरित्र को उद्घाटित करते दिखलाए गये हैं न कि उसके आसपास जो सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक समस्याएं हैं उसे। जाह्नवी कहानी में नायिका के ह्रदय की ग्रंथियों को सुलझाने में ही पूरी कहानी लिखी गई है। और सबसे बढ़कर उदाहरण देखा जा सकता है पत्नी कहानी में जहां नायिका का पति तो स्वाधीनता आंदोलन से जुड़ा हुआ है अर्थात वहां स्वाधीनता आंदोलन जैसी विराट राष्ट्रीय चिंतन का भी संकेत है। लेकिन स्वाधीनता आंदोलन या राष्ट्रीय चिंतन को बहुत अधिक विस्तार नहीं दिया गया है उसका उल्लेख कहानी में सीमित है कहानी का फलक विस्तृत होता है पत्नी कहानी की नायिका के आंतरिक-व्यथा को सुलझाने में।
हिंदी कथा-साहित्य में मनोविश्लेषणवाद की परंपरा के माध्यम से एक नयी धारा को प्रवाहित किया गया है। जिसे पोषित करने का श्रेय जैनेंद्र, अज्ञेय, इलाचंद जोशी जैसे रचनाकारों को जाता है।

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