भुवनेश्वर प्रसाद श्रीवास्तव कृत 'तांबे के कीड़े' एकांकी का केंद्रीय भाव

भुवनेश्वर प्रसाद श्रीवास्तव कृत 'तांबे के कीड़े' एकांकी का केंद्रीय भाव

हिंदी साहित्य में आधुनिक काल की सबसे बड़ी उपलब्धि गद्य विधाओं का सम्यक विकास रहा है | नाटक और एकांकी का प्रादुर्भाव होने के बाद निरंतर उसके स्वरूप और शैली में विकास होता गया | स्वतंत्रता के बाद की परिस्थिति में एक जल्दबाजी जैसा दृश्य उपस्थित हो गया | इस कारण से यहां साहित्यिक विधाओं को स्थूलता के स्थान पर सूक्ष्मता का महत्व मिला और यही कारण है कि यहां छोटी कविताओं, कथाओं, लघु कथाओं, एकांकी जैसे छोटे कलेवर की विधाओं को विशेष महत्व देने लगा |
भारतीय जनमानस में स्वतंत्रता के पूर्व जो समस्या थी, स्वतंत्रता के बाद भी वह बनी हीं रही और पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव से और भी कई सारी समस्याओं का जन्म हुआ जिसमें जीवन के एकाकीपन और मनुष्य के अस्तित्व की तलाश एक भयानक रूप में उत्पन्न ने हुई | आधुनिक परिवेश ने मानवीय जीवन को यांत्रिकता आवरण में ढक दिया और जैसे-जैसे मशीनीकरण का विकास होता गया, वैसे-वैसे जनमानस भी अपने संवेदनाओं से छूटकर यांत्रिक प्रभाव ग्रहण करने लगा |
भुवनेश्वर की कहानियों और एकांकियों पर पाश्चात्य प्रभाव स्पष्ट लक्षित होता है | स्ट्राइक, कारवां और तांबे के कीड़े इन तीनों एकांकियों ने हिंदी साहित्य में अपूर्व ख्याति प्राप्त की है | 'तांबे के कीड़े' एकांकी में आधुनिकता बोध का प्रभाव स्पष्ट दिख पड़ता है | इस एकांकी में ना तो कोई पूर्व नियोजित कथानक है, ना घटना और ना ही पात्र संवाद | इसके बावजूद यह एकांकी प्रतीकात्मक रूप से मानव जीवन के अर्थ लोलुपता और जीवन के संत्रास को भली प्रकार उपस्थित करने में सक्षम है | आज का मानव जीवन भौतिकता और सामाजिक कुव्यवस्थाओं का शिकार है |
जिसके बोझ तले दबे हुए एक अतिव्यस्त पति, जीवन से परेशान पत्नी और अर्थ के लोभवश समाज का अहित करने वाला थका हुआ अफसर एकांकी के माध्यम से परिवेश के ऊबड़-खाबड़ जिंदगी को चित्रित कर देते हैं | एकांकी अपने लघु कलेवर में ही आधुनिक जीवन के विभिन्न संत्रासों को समेटे हुए है | परिस्थितियां कुछ ऐसी बनती गई की छोटी-छोटी समस्याओं ने जीवन को विघटित करना शुरू कर दिया | एकांकी का पात्र रिक्शेवाला कहता है - "बादलों ने सूरज की हत्या कर दी, सूरज मर गया | मैं दूसरे का बोध होता हूं | "
यहां बादलों के द्वारा सूरज की हत्या संत्रासों के माध्यम से मानव जीवन को कुतरते जाने का प्रतीक है | एकांकी का मुख्य तत्व यही है कि मशीनीकरण ने मानवीय हृदय को और मस्तिष्क को मशीन जैसा ही बना दिया है जिसे तांबे के कीड़े धीरे-धीरे कुतर रहे हैं | एकांकी में बिना किसी पात्र को उपस्थित किए है नेपथ्य के एक स्वर के माध्यम से कहा गया है - "हमारी सबसे ताजी ईज़ाद 'कांच के शूटर' इसको सिर्फ तांबे के कीड़े खा सकते हैं, हमारी इससे भी ताजी ईज़ाद - 'तांबे के कीड़े' | "
स्पष्टत: आज के जीवन की दुश्वारियों ने मनुष्य को अपने आस-पास असुरक्षा के वातावरण का एहसास करा दिया है और इससे भयभीत होकर मनुष्य ने कछुए के खोल जैसा एक आवरण धारण कर लिया, अकेलेपन और यांत्रिकता का मशीनीकरण | यही यांत्रिक जीवन मनुष्य को भीतर ही भीतर खोखला करते जा रहा है और वह मानवीय संवेदनाओं से दूर हटकर व्यक्तिगत स्वार्थ में जीवन जीता है और भीतर ही भीतर टूटन महसूस करता रहता है |

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