लक्ष्मीनारायण कृत्य 'एक दिन' एकांकी का केंद्रीय भाव।

लक्ष्मीनारायण मिश्र को उनके एकांकी और नाटकों के लिए विशेष रूप से स्मरण किया जाता है | मिश्र जी ने अपनी रचनाधर्मिता से संपूर्ण हिंदी साहित्य को एक नवीन शैली का दर्शन कराया, वहीं नाटक के माध्यम से सामाजिक, राजनैतिक समस्याओं को सुलझाने का अद्भुत प्रयास किया है |
'एक दिन' एकांकी में मूल समस्या यह उठाया गया है कि आधुनिक युग में आकर भारतवासियों को अपनी परंपराएं बिल्कुल बोझ सी लगने लगी है | भारतीय पश्चिमी सभ्यता के अंधानुक्रम के पीछे बेतहाशा भागा जा रहा है | उन्हें अपनी सभी परंपराएं बोझ लगने लगी है |
एकांकी में जब निरंजन नए युग के भारत की चर्चा करता है, तब शीला कहती है - "भारत वही पुराना है | आप उसे नया बनाकर उसकी प्रतिष्ठा बिगाड़ रहे हैं | "
यहां यह स्पष्ट कर दिया जाता है कि बाहर से अच्छी या बुरी चीजों का आयात कर घर को भर देना और अपनी चीजों से वितृष्णा हो जाना नयेपन की निशानी नहीं होती है | परंपराओं की बात करते हुए मोहन जब यह प्रश्न उठाता है कि आज का युग जानकी का युग नहीं है, तो सुशीला जवाब देती है कि जानकी का संबंध लोकमत और आस्था से है और लोक तथा आस्था धूमिल नहीं होती है, वह सदैव लोगों के जीवन में बरकरार रहता है |
स्त्री अस्मिता के प्रश्न पर विचार करते हुए इस एकांकी में स्त्री जीवन के कई पहलुओं को उद्घाटित किया गया है | भारत में स्त्री अस्मिता की एक बहुत हीं पुरानी परंपरा रही है, जिसे तोड़कर स्त्रियों के जीवन में आधुनिकता को स्थापित करना पुरुष समाज की भी सोच रही है और स्त्री समुदाय की भी |
लक्ष्मीनारायण मिश्र स्त्री स्वतंत्रता का पक्ष तो लेते हैं लेकिन वे इस बात के पक्षधर नहीं हैं कि सभी पुरानी मान्यताओं को ध्वंस कर दी जाए | यहां पौराणिक मान्यताओं में कई ऐसे तत्व भी प्राप्त होते हैं, जो समाज और मनुष्य के लिए हितकारी है | एक प्रसंग में कहा गया है कि -
"संदेह का भार पुरुष ढ़ोता है स्त्री विश्वास चाहती है | "
यहां स्त्री की एक स्वाभाविक गुण की चर्चा की गई है | वह अपने प्रति समाज से विश्वास की कामना करती है और पुरुष समुदाय सदैव स्त्री को संदेह की दृष्टि से देखता है और यह स्त्री अस्मिता पर एक करारी चोट है |
एकांकी में निरंजन और शीला बातचीत के माध्यम से भारतीय संस्कृति की कई मान्यताओं को उजागर किया गया है|
एक ओर निरंजन है जिसके भीतर व्याकुलता और अस्थिरता विद्यमान है वहीं दूसरी ओर शीला उस भारतीय रमणी का प्रतिनिधित्व करती है, जो निरंतर अपनी संस्कृति और जातीयता के प्रति स्थिर है | समुचित तौर पर एकांकी में भारतीय और पाश्चात्य सभ्यता की टकराहट की गूंज सुनाई पड़ती है | जिसमें एकांकीकार ने भारतीय सभ्यता की ऊंचाई को बनाए रखने का प्रयास किया है |
भारतीय समाज में स्त्रियां पुराने समय से हीं शिक्षित भी रही है और शास्त्र का ज्ञान भी निरंतर पाती रही है | मध्य युग में आकर थोड़ी सी विचलन दिखाई पड़ती है |
एकांकी में शीला जब निरंजन से खुलकर बात करती है, तो निरंजन अचंभित रह जाता है और प्रश्न करता है कि - "आप तर्क करना जानती हैं ? " इस पर शीला का जवाब था - "आप समझे मैं गूंगी हूं | आपके सामने मैं बोल न पाऊंगी | "
इस तरह से मिश्र जी यह स्थापित कर देते हैं कि भारतीय होना, भारतीय सोच के तहत जीना और ग्रामीण परिवेश में पलना कहीं से भी दुर्बलता की निशानी नहीं है | भारत में स्त्रियां सदैव शिक्षित और विवेक संपन्न रही हैं | इस पूरे एकांकी पर भारतीय संस्कृति के स्थापना की गहरी छाप दिखाई पड़ती है |

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