हरिवंश राय बच्चन का साहित्यिक अवदान

हिंदी कविता में हालावाद का प्रवाह उस समय जोरो पर था जब समानांतर रूप से एक ओर छायावाद तो दूसरी ओर राष्ट्रीय भावधारा की कविताएं लिखी जा रही थी। हालावाद के उपजने में उस समय के राजनीतिक, सामाजिक पृष्ठभूमि की अहम भूमिका रही है। राजनैतिक रूप से भारतीय राजनीति करवट बदल रही थी। स्वाधीनता आंदोलन जो पिछले कई वर्षों से निरंतर चला आ रहा था उसका असर स्पष्ट दिखने लगा था। एक नयी राजनीतिक पारी की शुरुआत होने वाली थी। इस समय आंदोलन अपने चरमोत्कर्ष पर था और हर तरफ एक नयी बेचैनी का माहौल बना हुआ था। समाज नए-नए रूप में निर्मित हो और विखंडित हो रहा था। भारतीय संस्कृति का संरक्षण, पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव सब इन्हीं दिनों पैर पसार रहे थे। हर तरफ एक बेचैनी का माहौल था जिसमें घिरकर मनुष्य स्वयं को त्रस्त पा रहा था। संघर्षों के बीच ही उसका जीवन कट रहा था। ऐसे में मनुष्य के लिए जो वस्तु अप्राप्य था वह है जीवन का आनंद, जीवन का प्रेम।
हिंदी साहित्य में आरंभ से ही देखा जाए तो साहित्यकारों को दो पक्षों को लेकर चलते हुए देखा गया है। एक पक्ष तो उन साधु-संत प्रवृत्ति वाले साहित्यकारों का है जो इस संसार में जीते हुए उस संसार को कैसे बनाया जाए (अर्थात स्वर्ग नर्क की अवधारणा) जैसे विचारों पर चलते हुए जीवन का राह बना रहे थे। दूसरे वर्ग में ऐसे रचनाकार थे जो अतीत में नजर गराकर भविष्य को गढ़ने में लगे थे। दोनों ही वर्तमान को नजरअंदाज कर रहे थे। हालावाद का प्रवर्तन करने का श्रेय हरिवंश राय बच्चन को जाता है। हरिवंश राय बच्चन की कविताओं में हम देखते हैं कि वहां अतीत और भविष्य की चिंता नगण्य है। वहां वर्तमान सुख को भोगने पर अधिक बल दिया गया है। उनका मानना है कि विषम परिस्थितियों में भी, इस राजनैतिक उठापटक की स्थिति में भी, मनुष्य को अपने लिए आनंद अवश्य ढूंढना चाहिए। मनुष्य के जीवन में उसके आसपास जो भी प्रेय है उसका उपभोग मनुष्य को तत्क्षण करना चाहिए। बच्चन जी कहते हैं,
इस पार प्रिय! मधु है, तुम हो
उस पार न जाने क्या होगा ?
मरने के बाद क्या प्राप्त होगा, उस पार क्या मिलने वाला है, इससे बच्चन जी को कुछ खास फर्क नहीं पड़ता है। वे मानते हैं कि इस पार जीवन की मधुरता है, प्रियतमा है उसके साथ आनंद के जो पल मिल रहे हैं उसका उपभोग करना ही जीवन का लक्ष्य है। हालावाद में हाला (आनंद) की प्रधानता है।
जीवन में राजनैतिक, सामाजिक चिंताएं भरी पड़ी थी, जिसके तनाव में मनुष्य जीवन जीने की कला ही भूलता जा रहा था। उस तनाव को कम करने के लिए हाला को प्रतीकात्मक रूप में लिया गया है। बच्चन जी के हालावाद में जिस मधुशाला या जिस हाला की चर्चा बार बार आती है वह कोई मदिरालय या मदिरा नहीं है। यहां प्रतीकात्मक रूप से मधुशाला इस सृष्टि को, इस संसार को कहा गया है। जिसमें मधु, शराब नहीं जीवन का आनंद है। साकी वह प्रिय है जो हमारे जीवन में आनंद घोलता है। प्याला वह लम्हा है जिसमें भरकर हम जीवन-आनंद को ग्रहण करते हैं। बच्चन जी जब कहते हैं कि,
मधुशाला वह नहीं जहां पर मदिरा बेची जाती है
भेंट जहां मस्ती की मिलती मेरी तो वह मधुशाला।
तब बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है कि किसी शराबखाने को बच्चन जी ने मधुशाला नहीं कहा है बल्कि जहां मस्ती का भेंट मिलता हो, जीवन का आनंद मिलता हो, प्रेम मिलता हो वही मनुष्य के जीवन में मधुशाला है। और जो आनंद लाने वाला है वही साकी है।
हिंदी साहित्य में जिस काव्यधारा को हालावाद की संज्ञा दी गई है वह पूरी तरह से प्रेम और मस्ती का काव्य है। वहां अन्य सभी चिंताओं को छोड़कर मनुष्य प्रेम और मस्ती में उसी प्रकार डूब जाता है जिस प्रकार एक शराबी शराब के नशे में डूब कर सारी चिंताओं से दरकिनार कर जाता है। भगवती चरण वर्मा, नरेंद्र शर्मा जैसे अन्य कवियों ने भी हालावाद के प्रभाव में प्रेम और मस्ती के गीत गाए हैं। यह सच है कि हालावाद क्षणिक काव्य आंदोलन ही प्रमाणित हो सका जिसने कुछ वर्षों में गिने-चुने कवियों के रचनाओं को समेटते हुए दम तोड़ दिया। लेकिन इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता है कि हालावाद की समय सीमा जितनी भी छोटी रही हो, उस भावधारा से जुड़े रचनाकारों की सूची जितनी भी छोटी रही हो लेकिन इसका प्रभाव मानव जीवन पर तत्कालीन समाज में भी पर्याप्त था और आगे चलकर भी इसका प्रभाव पूर्णरूपेण बना रहा। ऐसा नहीं है कि हालावाद सिर्फ मस्ती के उन्माद का गीत मात्र है। इसमें समाज को नैतिक शिक्षा भी दी गई है और समाज में जो आडंबर और कुरीतियां हैं उस पर प्रहार भी किया गया है। हमारे समाज की एक रीति रही है कि युवाओं को बार-बार कुछ भी करने से वृद्ध समाज टोकता है, उसे रोक देने का प्रयास करता है। बच्चन जी ने लिखा,
क्या किया मैंने, नहीं जो कर चुका संसार अब तक
वृद्ध जग को क्यों अखरती है क्षणिक मेरी जवानी।
उनका कहना हैं कि समाज में दुराचारियों की भीड़ आई हुई है लेकिन वे सभी अपने ऊपर सफेद चादर ओढ़ कर खुद को समाज में प्रतिष्ठा के पात्र बना लेते हैं।
मैं छुपाना जानता तो जग मुझे साधु समझता
शत्रु मेरा बन गया है छल रहित व्यवहार मेरा।
बच्चन जी का हालावाद अर्थात मस्ती का स्वरूप, जाति-धर्म जैसी कुरीतियों पर एक कठोर प्रहार है। बच्चन जी का मानना है कि जीवन में प्रेम और मस्ती वही प्राप्त कर सकता है जो जाति-धर्म जैसी छोटी सोचो से ऊपर उठता है।
मंदिर-मस्जिद बैर कराते
मेल कराती मधुशाला ।
जिस तरह से शराबखाने में जाकर लोग अपनी जाति-धर्म भूल जाते हैं उसी तरह से इस संसार रूपी मधुशाला में भी आनंद तभी प्राप्त किया जा सकता है जब इस संकुचित सोच से मनुष्य ऊपर उठ सके। वे कहते हैं कि,
पंडित, मोमिन, पादरियों के फंदे को जो तोड़ चुका
कर सकती है आज उसी का स्वागत मेरी मधुशाला।
जो व्यक्ति पंडितों के बतलाए हुए कर्मकांड के रास्ते पर चलेगा, मोमिन के बतलाए हुए सिद्धांतों का पालन करेगा, पादरी की खींची गई रेखाओं का अनुगमन करेगा, वह अपने-अपने जातिगत संप्रदायगत संस्कारों में बंधा रह जाएगा और जीवन के आनंद को प्राप्त कर पाना उसके लिए संभव नहीं है।
हालावाद में यथार्थ की कठोर भूमि तो है लेकिन उसके ऊपर कल्पना की एक कोमल चादर भी बिछा दी गई है। हालावाद में सर्वाधिक महत्व कल्पना की है। मनुष्य जीवन आनंद को कल्पित करता है और फिर उसे प्राप्त करने में जी जान से लग जाता है। वहां भावुकता का, मानवीय प्रेम का, भाईचारे का, सौहार्द का सबसे ज्यादा मोल है।
भावुकता अंगूर लता से, खींच कल्पना की हाला
कवि साकी बनकर आया है भरकर कविता का प्याला
कभी न कण भर खाली होगा लाख पिएं दो लाख पिएं
पाठक गन हैं पीने वाले पुस्तक मेरी मधुशाला।
         इस तरह से हम देखते हैं कि हालावाद में जीवन की सार्थकता का सर्वाधिक महत्व है। यहां अतीत और भविष्य की चिंता भुलाकर वर्तमान जीवन को महत्व दिया गया है। वर्तमान में जो सुख और आनंद प्राप्त है उसके उपभोग पर बल दिया गया है। यह काव्यधारा सदैव जीवन के आनंद और उन्मुक्त प्रेम की वकालत करता है।

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