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'भारत माता ग्रामवासिनी' कविता का भाव सौंदर्य

'भारत माता ग्रामवासिनी' कविता का भाव सौंदर्य  सीमा कुमारी  अतिथि सहायक प्राध्यापिका हिंदी, बी.एस.एस. कॉलेज, सुपौल। 'सुमित्रानंदन पंत' छायावाद के प्रतिनिधि कवि के रूप में जाने जाते हैं | कोमलकांत पदावली और प्रकृति से अटूट जुड़ाव होने के कारण पंत जी को प्रकृति का सुकुमार कवि कहा जाता है | यह स्मरण रखने योग्य है कि छायावादी काव्य राष्ट्रीय चेतना से विमुख नहीं है | जयशंकर प्रसाद, निराला, पंत, सभी की रचनाओं में राष्ट्रीय भावधारा का स्वर अनुगूंजित है | छायावादी दौर से आगे बढ़ने पर पंत और निराला का जुड़ाव प्रगतिवादी काव्यांदोलन से भी रहा | पंत जी ने 'भारतमाता ग्रामवासिनी' कविता का वर्णन 1940 ई० में किया | यह दौर भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के उत्कर्ष का काल था | इससे पूर्व भारत की दयनीय स्थिति पर भारतेंदु से लेकर मैथिलीशरण गुप्त तक ने काव्य सृजन किया है | गुप्तजी ने अपनी कृति 'भारत-भारती' के अतीत खंड में भारत के स्वर्णिम अतीत का गुणगान करते हुए उसके वर्तमान और भविष्य पर भी चिंतन-मनन किया है | पंत जी की यह कविता भारतमाता ग्रामवासिनी भी बहुत कुछ उसी सरीखे है, जिसमें

सोन मछली (अज्ञेय) कविता का केंद्रीय भाव

अज्ञेय प्रयोगवाद के प्रतिनिधि कवि हैं। प्रयोगवाद में आत्मपरिचय और व्यक्तिक-स्वतंत्रता का स्वर प्रमुख रहा है। जो मनुष्य व्यक्तिगत स्वतंत्रता का पक्षधर है सृष्टि के समस्त प्राणी मात्र को स्वतंत्र रूप में देखने का पक्षधर होता है। आत्मपरिचय में इन कवियों की दृष्टि इस ओर अधिक विस्तृत थी कि सृष्टि का परिचय पाने से पहले अपना परिचय पाना कहीं आवश्यक है। कविता की व्याख्या के क्रम में एक बात ध्यान देने योग्य होती है कि लिखते समय कवि की मनोवृति उस कविता को लेकर जो भी रही हो व्याख्या के क्रम में कविताएं कई अर्थ प्रकट करती हैं। कविता की भाषा लाक्षणिक और विशेषत: व्यंजनात्मक होती है। व्यंजना शब्द शक्ति की यह खासियत है कि वह एक-एक शब्द के कई-कई अर्थ प्रदान करती है। साहित्य की किसी विधा विशेष तौर पर कविता की व्याख्या के दौरान यह देखने में आता है कि अलग-अलग व्याख्याकारों की दृष्टिकोण के आधार पर एक ही कविता के कई अर्थ प्रकट होते हैं। नई कविता या प्रयोगवादी कविता तो विशेष तौर पर अपने प्रतीकात्मक रूपों के लिए ही जानी जाती है और प्रतीकात्मक रूप में शब्द के अनेक अर्थ प्रकट करती हैं। सोन मछली अज्ञेय की एक बहु

'युग का जुआ' (हरिवंश राय बच्चन) कविता का भावार्थ

'युग का जुआ' हिंदी के सुप्रसिद्ध कवि हरिवंश राय 'बच्चन' की एक प्रसिद्ध कविता है | बच्चन जी हिंदी कविता में हालावाद के प्रवर्तक के रूप में जाने जाते हैं | बच्चन मूलत: प्रेम और मस्ती के गायक हैं, लेकिन उनकी कई कविताएं ऐसी भी है, जो समाज को प्रेरित और जागृत करने का कार्य करती है | देश के युवा (युवक) अपने उत्साह और कार्य-क्षमता से देश और समाज को एक नई दिशा दे सकते हैं |परिवर्तन की क्षमता यदि कहीं है, तो समाज के युवकों के भीतर है | वही समाज में परिवर्तन की दिशा तय कर सकता है | जितना यह सच है कि युवा कठोर परिश्रमी होते हैं, उतना ही यह भी कि वह स्वप्न जीवी होते हैं | क्षणभर में ही उनका उत्साह मंद पड़ जाता है |  इस कविता में युवकों को प्रेरित करते हुए बच्चन जी कहते हैं कि हे देश के युवा ! तुम्हारे कंधों पर ही देश और समाज को चलाने की जिम्मेदारी है | कर्तव्य रूपी इस गाड़ी को तुम्हें ही खींच कर आगे ले जाना है | युवाओं से वे कहते हैं कि तुम्हारे कंधे वृषभ (बैल) के कंधों की तरह मजबूत हैं | तुम हुमककर (जोर लगाकर) गाड़ी के 'जुआ' (बैलगाड़ी का वह भाग जो बैल के कंधे पर रखा जाता ह

लक्ष्मीनारायण कृत्य 'एक दिन' एकांकी का केंद्रीय भाव।

लक्ष्मीनारायण मिश्र को उनके एकांकी और नाटकों के लिए विशेष रूप से स्मरण किया जाता है | मिश्र जी ने अपनी रचनाधर्मिता से संपूर्ण हिंदी साहित्य को एक नवीन शैली का दर्शन कराया, वहीं नाटक के माध्यम से सामाजिक, राजनैतिक समस्याओं को सुलझाने का अद्भुत प्रयास किया है | 'एक दिन' एकांकी में मूल समस्या यह उठाया गया है कि आधुनिक युग में आकर भारतवासियों को अपनी परंपराएं बिल्कुल बोझ सी लगने लगी है | भारतीय पश्चिमी सभ्यता के अंधानुक्रम के पीछे बेतहाशा भागा जा रहा है | उन्हें अपनी सभी परंपराएं बोझ लगने लगी है | एकांकी में जब निरंजन नए युग के भारत की चर्चा करता है, तब शीला कहती है - "भारत वही पुराना है | आप उसे नया बनाकर उसकी प्रतिष्ठा बिगाड़ रहे हैं | " यहां यह स्पष्ट कर दिया जाता है कि बाहर से अच्छी या बुरी चीजों का आयात कर घर को भर देना और अपनी चीजों से वितृष्णा हो जाना नयेपन की निशानी नहीं होती है | परंपराओं की बात करते हुए मोहन जब यह प्रश्न उठाता है कि आज का युग जानकी का युग नहीं है, तो सुशीला जवाब देती है कि जानकी का संबंध लोकमत और आस्था से है और लोक तथा आस्था धूमिल नहीं होती

हरिवंश राय बच्चन का साहित्यिक अवदान

हिंदी कविता में हालावाद का प्रवाह उस समय जोरो पर था जब समानांतर रूप से एक ओर छायावाद तो दूसरी ओर राष्ट्रीय भावधारा की कविताएं लिखी जा रही थी। हालावाद के उपजने में उस समय के राजनीतिक, सामाजिक पृष्ठभूमि की अहम भूमिका रही है। राजनैतिक रूप से भारतीय राजनीति करवट बदल रही थी। स्वाधीनता आंदोलन जो पिछले कई वर्षों से निरंतर चला आ रहा था उसका असर स्पष्ट दिखने लगा था। एक नयी राजनीतिक पारी की शुरुआत होने वाली थी। इस समय आंदोलन अपने चरमोत्कर्ष पर था और हर तरफ एक नयी बेचैनी का माहौल बना हुआ था। समाज नए-नए रूप में निर्मित हो और विखंडित हो रहा था। भारतीय संस्कृति का संरक्षण, पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव सब इन्हीं दिनों पैर पसार रहे थे। हर तरफ एक बेचैनी का माहौल था जिसमें घिरकर मनुष्य स्वयं को त्रस्त पा रहा था। संघर्षों के बीच ही उसका जीवन कट रहा था। ऐसे में मनुष्य के लिए जो वस्तु अप्राप्य था वह है जीवन का आनंद, जीवन का प्रेम। हिंदी साहित्य में आरंभ से ही देखा जाए तो साहित्यकारों को दो पक्षों को लेकर चलते हुए देखा गया है। एक पक्ष तो उन साधु-संत प्रवृत्ति वाले साहित्यकारों का है जो इस संसार में जीते ह

रामचरितमानस का प्रतिपाद्य

हिंदी साहित्य का भक्तिकालीन युग दो वर्गों में विभक्त है - सगुण भक्ति शाखा तथा निर्गुण भक्ति शाखा | सगुण भक्ति शाखा के उपासक अपने आराध्य के सगुण स्वरूप की आराधना करते हैं | इनके आराध्य साकार रूप में सर्वगुण संपन्न हैं | सगुण भक्ति शाखा की दो उपशाखाएं हुई - राम भक्ति उपशाखा तथा कृष्ण भक्ति उपशाखा | रामभक्ति उपशाखा के कवि मर्यादा पुरुषोत्तम राम की उपासना करते हैं वही कृष्णभक्ति उपशाखा के कवि सगुण स्वरूप कृष्ण की उपासना करते हैं | निर्गुण भक्ति धारा के कवि ईश्वर के निराकार स्वरूप की उपासना करते हैं | इस संप्रदाय के कवि ज्ञान अथवा प्रेम के माध्यम से ईश्वर के साथ तादात्म्य स्थापित करते हैं | निर्गुण भक्ति की दो उपधाराएं ज्ञानमार्गी तथा प्रेममार्गी है | ज्ञानमार्गी ने जनता को विचार के स्तर पर प्रभावित किया तथा प्रेममार्गी कवियों ने अपने प्रेमाख्यानों के द्वारा लोकमानस को भावना के स्तर पर प्रभावित किया | रामानुजाचार्य ने शंकराचार्य के भक्ति दर्शन अद्वैतवाद का खंडन करने के लिए विशिष्टाद्वैत दर्शन तथा श्री संप्रदाय की स्थापना की | उन्हीं के भक्त परंपरा में रामानंद ने रामभक्ति शाखा की स्थापना

भुवनेश्वर प्रसाद श्रीवास्तव कृत 'तांबे के कीड़े' एकांकी का केंद्रीय भाव

भुवनेश्वर प्रसाद श्रीवास्तव कृत 'तांबे के कीड़े' एकांकी का केंद्रीय भाव हिंदी साहित्य में आधुनिक काल की सबसे बड़ी उपलब्धि गद्य विधाओं का सम्यक विकास रहा है | नाटक और एकांकी का प्रादुर्भाव होने के बाद निरंतर उसके स्वरूप और शैली में विकास होता गया | स्वतंत्रता के बाद की परिस्थिति में एक जल्दबाजी जैसा दृश्य उपस्थित हो गया | इस कारण से यहां साहित्यिक विधाओं को स्थूलता के स्थान पर सूक्ष्मता का महत्व मिला और यही कारण है कि यहां छोटी कविताओं, कथाओं, लघु कथाओं, एकांकी जैसे छोटे कलेवर की विधाओं को विशेष महत्व देने लगा | भारतीय जनमानस में स्वतंत्रता के पूर्व जो समस्या थी, स्वतंत्रता के बाद भी वह बनी हीं रही और पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव से और भी कई सारी समस्याओं का जन्म हुआ जिसमें जीवन के एकाकीपन और मनुष्य के अस्तित्व की तलाश एक भयानक रूप में उत्पन्न ने हुई | आधुनिक परिवेश ने मानवीय जीवन को यांत्रिकता आवरण में ढक दिया और जैसे-जैसे मशीनीकरण का विकास होता गया, वैसे-वैसे जनमानस भी अपने संवेदनाओं से छूटकर यांत्रिक प्रभाव ग्रहण करने लगा | भुवनेश्वर की कहानियों और एकांकियों पर पाश्चात्य

विष्णु प्रभाकर रचित 'मां' एकांकी का केंद्रीय भाव

विष्णु प्रभाकर रचित 'मां' एकांकी का केंद्रीय भाव विष्णु प्रभाकर ने 'मां' एकांकी के माध्यम से स्त्री मन की गुत्थी को सुलझाने का प्रयत्न किया है | आधुनिक युग में साहित्य की सभी विधाओं का जुड़ाव व्यक्ति के आंतरिक कुंठाओं से हुआ और यहीं से साहित्य में मनोविश्लेषण को प्रश्रय मिला | इस एकांकी में यह चित्रित किया गया है कि एक स्त्री को समाज सदैव अपने द्वारा निर्मित मापदंड के आधार पर परखना चाहता है | उसे (समाज को) स्त्री वैसी ही चाहिए जैसा कि वह कल्पना करता है जबकि स्त्री का मनोविकार इससे भिन्न होता है | मनीषी अपनी स्मृतियों में अपनी मां की उस छवि को धारण किए हुए हैं जो उसे चार वर्ष की अवस्था में छोड़कर दूसरा विवाह कर लेती है | मनीषी की मां उसे अपने साथ लेकर जाना तो चाहती थी लेकिन मनीषी को सदैव यही बतलाया गया कि उसकी मां उसे छोड़कर खुद की मर्जी से गई थी | यह तस्वीर मनीषी के मस्तिष्क में दीर्घ अवधि से छपी चली आई थी जो धीरे-धीरे इस कदर कुंठित हो उठा कि उसके जीवन का एकमात्र उद्देश्य अपनी मां के प्रति घृणा मात्र बनकर रह गया | एकांकी के आरंभ से तीन महीने पूर्व मनीषी को यह पता चल

यशोधरा काव्य का प्रतिपाद्य

 यशोधरा काव्य का प्रतिपाद्य  यशोधरा काव्य का प्रणयन (रचना/लिखना) करने के पीछे राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त का मूल उद्देश्य गौतम बुद्ध की पत्नी यशोधरा के त्याग, बलिदान, समर्पण और कर्तव्यनिष्ठता का निरूपण करना है। इस काव्य में मूल रूप से बौद्ध धर्म और वैष्णव धर्म को समानांतर रूप से रेखांकित किया गया है। मैथिलीशरण गुप्त वैष्णव भक्त थे। यशोधरा काव्य में भी उनकी वैष्णव भक्ति स्थान-स्थान पर प्रकट हुई है। कई जगहों पर जब वैष्णव धर्म और बौद्ध धर्म की टकराहट होती है तब वहां मैथिलीशरण गुप्त वैष्णव धर्म की श्रेष्ठता स्थापित करते हैं। बौद्ध धर्म का मूल प्रतिपाद्य मुक्ति है और वैष्णव धर्म मुक्ति के स्थान पर भक्ति की कामना करता है इस काव्य के मंगलाचरण में गुप्तजी ने लिखा है मुक्ति, मुक्ति मांगू क्या तुझसे हमें भक्ति दो ओ अमिताभ। आगे चलकर इस काव्य में गौतम बुद्ध के चरित्रों की श्रेष्ठता तो दिखलाई जाती है लेकिन यशोधरा जो कि वैष्णव धर्म के सिद्धांतों को मानने वाली है उसके विचारों की श्रेष्ठता बौद्ध धर्म से उपर रखी गयी है। बौद्ध धर्म में मनुष्य के जिस वृद्धावस्था को लेकर चिंतन किया गया है। उसे जीवन क

जैनेंद्र के कथा साहित्य का स्वरूप

जैनेंद्र के कथा साहित्य का स्वरूप हिंदी कथा साहित्य, जिसकी परंपरा तो अत्यंत दीर्घ रही है लेकिन इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता है कि अपने शुरुआती दौर में ही नहीं बल्कि बीसवीं शताब्दी के आरंभ तक इसका स्वरूप मनोरंजनपरक एवं उपदेशात्मक रहा है। कथा साहित्य में यथार्थ भूमि और जन जीवन की समस्याओं का घोर अभाव था। हिंदी साहित्य में प्रेमचंद के पूर्व कहानी और उपन्यासों की एक लंबी परंपरा रही है। वहां शैली, पठनीयता आदि में कोई कमी नहीं थी। भाषा को सुदृढ़ करने में भी उनका अहम योगदान रहा है। पाठकों को बांधकर रखने की क्षमता तो जासूसी और तिलस्मी-ऐयारी उपन्यासों-कहानियों में अद्भुत रहा है। यदि कोई कमी रही है तो बस इतनी कि उसका जुड़ाव जनजीवन की समस्याओं से नहीं था। कथा साहित्य की इस कमी को भी प्रेमचंद ने पूरा कर दिया। प्रेमचंद की कहानियों-उपन्यासों में जनजीवन की समस्याएं आदर्शवादी यथार्थ और आगे चलकर अपने पूर्ण यथार्थ के साथ उपस्थित हैं। प्रेमचंद ने जब हिंदी कथा-साहित्य में जीवन की समस्याओं को कथानक के रूप में अपनाया तब उसके बाद अनेक रचनाकार इस मार्ग पर अग्रसर हुएं। प्रेमचंद और उनके परंपरा के कथाका

जैनेन्द्र की 'पत्नी' कहानी का समीक्षात्मक परिचय ।

जैनेन्द्र की 'पत्नी' कहानी का समीक्षात्मक परिचय । जैनेंद्र कुमार मनोविश्लेषणवादी कथाकार के रूप में हिंदी साहित्य में विख्यात हैं। मनोविश्लेषणवादी कथा साहित्य में पात्रों के मनोभावों का विश्लेषण करते हुए उसके अंदर की गूथियों को, मन के अंदर के उलझनों को सुलझाने का प्रयत्न किया जाता है। वहां ध्यान यह रखा जाता है कि जिस पात्र के माध्यम से कथानक को बुना जा रहा है उस पात्र के बाहर के वातावरण का चित्रण उतना ही किया जाता है जितना कि उस पात्र के मानसिक उद्रेक को सुलझाने के लिए आवश्यक हो। कथानक में पात्र के इर्द-गिर्द के जन जीवन की समस्याओं के स्थान पर पात्र के मनोभावों को दर्शाते हुए उसकी मानसिक दशा को अधिक महत्व दिया जाता है। जैनेंद्र कुमार की कहानियों में एक और बात जो उभर कर आती है वह यह है कि उन्होंने अधिकांश कहानियों और उपन्यासों में स्त्रियों को केंद्र में रखा है और उस पात्र के माध्यम से स्त्री मनोदशा का वर्णन किया है। यहां यह भी ध्यान रखा जाना आवश्यक है कि उन्होंने अपने पात्रों के माध्यम से भारतीय संस्कृति, भारतीय जनजीवन, भारतीय परिवार की अवधारणा आदि का पोषण भी किया है। वे संयु