विष्णु प्रभाकर रचित 'मां' एकांकी का केंद्रीय भाव
विष्णु प्रभाकर रचित 'मां' एकांकी का केंद्रीय भाव
विष्णु प्रभाकर ने 'मां' एकांकी के माध्यम से स्त्री मन की गुत्थी को सुलझाने का प्रयत्न किया है | आधुनिक युग में साहित्य की सभी विधाओं का जुड़ाव व्यक्ति के आंतरिक कुंठाओं से हुआ और यहीं से साहित्य में मनोविश्लेषण को प्रश्रय मिला | इस एकांकी में यह चित्रित किया गया है कि एक स्त्री को समाज सदैव अपने द्वारा निर्मित मापदंड के आधार पर परखना चाहता है | उसे (समाज को) स्त्री वैसी ही चाहिए जैसा कि वह कल्पना करता है जबकि स्त्री का मनोविकार इससे भिन्न होता है |
मनीषी अपनी स्मृतियों में अपनी मां की उस छवि को धारण किए हुए हैं जो उसे चार वर्ष की अवस्था में छोड़कर दूसरा विवाह कर लेती है | मनीषी की मां उसे अपने साथ लेकर जाना तो चाहती थी लेकिन मनीषी को सदैव यही बतलाया गया कि उसकी मां उसे छोड़कर खुद की मर्जी से गई थी | यह तस्वीर मनीषी के मस्तिष्क में दीर्घ अवधि से छपी चली आई थी जो धीरे-धीरे इस कदर कुंठित हो उठा कि उसके जीवन का एकमात्र उद्देश्य अपनी मां के प्रति घृणा मात्र बनकर रह गया | एकांकी के आरंभ से तीन महीने पूर्व मनीषी को यह पता चलता है कि उसकी मां इसी शहर में रहती है और वह मनीषी से मिलना भी चाहती है | तब उसका मानसिक उद्रेक और अधिक भड़क उठता है | उसे अंदर से यह भय सताने लगता है कि यदि मेरे पति को मेरी मां के चरित्र के बारे में पता चलता है तो वह मुझसे दूर हो जाएगा | पति के छीन जाने का भय धीरे-धीरे उसके मस्तिष्क में कुंठित होता जाता है | इसी दौरान मनीषी को पागलपन के कुछ दौरे भी पड़ते हैं | उसकी मां जिस मनोवृत्ति से जूझते हुए दूसरा विवाह करती है उसे समाज जायज नहीं ठहराता है और उसी समाज में पली-बढ़ी मनीषी भी उस पक्ष को समझ नहीं पाती है | उसे मां के रूप में एक ऐसी स्त्री की कल्पना थी जो सामाजिक मर्यादा का उल्लंघन करती हैं, इसलिए वह अग्राह्य है | भारतीय समाज में स्त्री को सदैव एक आदर्श के आवरण से देखने का प्रयत्न किया गया है | उसे कभी भी उसकी वास्तविक सत्ता में स्वीकार नहीं किया गया | आधुनिक युग में स्वयं स्त्रीवादी लेखिकाओं ने और उसकी मनोवृति को समझने वाले रचनाकारों ने भी स्त्री चरित्र की वास्तविकता को स्वीकार करने का साहस दिखलाया है |
इस एकांकी में 'विष्णु प्रभाकर' मौसी और डॉक्टर के द्वारा मनीषी की मां की वास्तविक स्थिति को स्वीकार करते हुए मनीषी की मानसिक यातना को दूर करने का प्रयास करते हैं | मनीषी की मां मनीषी से स्नेह रखती थी | उसे सामाजिक मर्यादा का ख्याल भी था लेकिन इन सबसे बढ़कर उसका अपना स्त्रीत्व भी था | जिसके लिए उसे सामाजिक मर्यादा का उल्लंघन करना पड़ता है | एकांकी के माध्यम से यह दिखलाया गया है कि स्त्री जीवन के कई स्तर होते हैं | स्त्री अपने एक ही जीवन काल में अनेक स्तरों पर जीती है और कई बार ऐसा भी होता है कि एक रुप में जीने के लिए उसे अपने दूसरे रूप को छोड़ना पड़ता है | ऐसे में किसी एक पक्ष को लेकर स्त्री का मूल्यांकन किया जाना उचित नहीं ठहरता |
विष्णु प्रभाकर ने 'मां' एकांकी के माध्यम से स्त्री मन की गुत्थी को सुलझाने का प्रयत्न किया है | आधुनिक युग में साहित्य की सभी विधाओं का जुड़ाव व्यक्ति के आंतरिक कुंठाओं से हुआ और यहीं से साहित्य में मनोविश्लेषण को प्रश्रय मिला | इस एकांकी में यह चित्रित किया गया है कि एक स्त्री को समाज सदैव अपने द्वारा निर्मित मापदंड के आधार पर परखना चाहता है | उसे (समाज को) स्त्री वैसी ही चाहिए जैसा कि वह कल्पना करता है जबकि स्त्री का मनोविकार इससे भिन्न होता है |
मनीषी अपनी स्मृतियों में अपनी मां की उस छवि को धारण किए हुए हैं जो उसे चार वर्ष की अवस्था में छोड़कर दूसरा विवाह कर लेती है | मनीषी की मां उसे अपने साथ लेकर जाना तो चाहती थी लेकिन मनीषी को सदैव यही बतलाया गया कि उसकी मां उसे छोड़कर खुद की मर्जी से गई थी | यह तस्वीर मनीषी के मस्तिष्क में दीर्घ अवधि से छपी चली आई थी जो धीरे-धीरे इस कदर कुंठित हो उठा कि उसके जीवन का एकमात्र उद्देश्य अपनी मां के प्रति घृणा मात्र बनकर रह गया | एकांकी के आरंभ से तीन महीने पूर्व मनीषी को यह पता चलता है कि उसकी मां इसी शहर में रहती है और वह मनीषी से मिलना भी चाहती है | तब उसका मानसिक उद्रेक और अधिक भड़क उठता है | उसे अंदर से यह भय सताने लगता है कि यदि मेरे पति को मेरी मां के चरित्र के बारे में पता चलता है तो वह मुझसे दूर हो जाएगा | पति के छीन जाने का भय धीरे-धीरे उसके मस्तिष्क में कुंठित होता जाता है | इसी दौरान मनीषी को पागलपन के कुछ दौरे भी पड़ते हैं | उसकी मां जिस मनोवृत्ति से जूझते हुए दूसरा विवाह करती है उसे समाज जायज नहीं ठहराता है और उसी समाज में पली-बढ़ी मनीषी भी उस पक्ष को समझ नहीं पाती है | उसे मां के रूप में एक ऐसी स्त्री की कल्पना थी जो सामाजिक मर्यादा का उल्लंघन करती हैं, इसलिए वह अग्राह्य है | भारतीय समाज में स्त्री को सदैव एक आदर्श के आवरण से देखने का प्रयत्न किया गया है | उसे कभी भी उसकी वास्तविक सत्ता में स्वीकार नहीं किया गया | आधुनिक युग में स्वयं स्त्रीवादी लेखिकाओं ने और उसकी मनोवृति को समझने वाले रचनाकारों ने भी स्त्री चरित्र की वास्तविकता को स्वीकार करने का साहस दिखलाया है |
इस एकांकी में 'विष्णु प्रभाकर' मौसी और डॉक्टर के द्वारा मनीषी की मां की वास्तविक स्थिति को स्वीकार करते हुए मनीषी की मानसिक यातना को दूर करने का प्रयास करते हैं | मनीषी की मां मनीषी से स्नेह रखती थी | उसे सामाजिक मर्यादा का ख्याल भी था लेकिन इन सबसे बढ़कर उसका अपना स्त्रीत्व भी था | जिसके लिए उसे सामाजिक मर्यादा का उल्लंघन करना पड़ता है | एकांकी के माध्यम से यह दिखलाया गया है कि स्त्री जीवन के कई स्तर होते हैं | स्त्री अपने एक ही जीवन काल में अनेक स्तरों पर जीती है और कई बार ऐसा भी होता है कि एक रुप में जीने के लिए उसे अपने दूसरे रूप को छोड़ना पड़ता है | ऐसे में किसी एक पक्ष को लेकर स्त्री का मूल्यांकन किया जाना उचित नहीं ठहरता |
Maa ekanki saranch bataiye
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